कुछ यादें गुज़रे हुए पलों की .......

Sunday 20 October 2013

जीवन का पहिया


एक कागज़ के, ज़मीन पर बिखरे कुछ टुकड़े, टुकुर-टुकुर ताकते हैं, उस घूमते पंखे की, परछाईओं को, वो बेबस घडी, जिसकी सुईयां, जैसे-जैसे चलती हैं, सीने में गड़ती हैं, खिड़की बेरंग है मगर, सारे रंग दिखाती है, पहिया लुढ़काते दो बच्चे, चीथड़े बदन पर हैं, चार पहियों की एक गाड़ी को, बेबसी से घूरते हैं, शायद यही है, जीवन का पहिया! सामने की छत पर, कपडे सुखाती एक औरत, साथ में खेलते दो बच्चे, या कुछ सपने, टेबल पर पड़ा एक, फटा मेजपोश, जो गवाह है, पड़ोस से आती, अजान की आवाज का, बगल में पड़ा एक, कुचैला सा थैला, जब ख़रीदा गया था, नया था एकदम, बड़े अरमान जो सजे थे, अगरबत्ती के धुएँ से अटा, मेरा कमरा, या कहूं तो! मेरा भविष्य, मेज़ की दराजों में पड़े, बेतरतीब से कागज़, मेरी हालत बयां करने की, ताकत रखते हैं, मेजपोश पे पड़ी, सूखी सी कलम, और उसका बोझ सहता, एक काला सा कागज़, बस सही मायनो में, यही किये जा रहा हूँ, कलम को कागज़ पे, घिसे जा रहा हूँ, घिसे जा रहा हूँ।। -दिवांशु

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